यायावर ............. ये नाम मुझे मेरे बचपन के दोस्तो ने दिया..... मुझे
बचपन से ही घूमने का शौक है शायद मुझे ये मेरी माँ से विरासत मे
मिला....... वो सम्पूर्ण देश और नेपाल आदि घूम चुकी है केदारनाथ, बद्रीनाथ
चारों धाम ही लगभग 4 से ज्यादा बार कर चुकी है...... तो मुझे यह सब विरासत
मे मिलना लाजिमी था ...........सबसे पहले 6th क्लास मे देश भ्रूमण से ये
सिलसिला शुरू हुआ......जब मुझे मेरे स्कूल की तरफ से दशहरे की छुट्टियों मे
देशाटन कराया जाता था...... सर्दियों के दिन होते थे, बिस्तर कपड़े सब खुद
ले जाना होते थे..... एक भारी सा होलडोल जिसमे गद्दा, रज़ाई होती थी ,
क्योंकि सर्दी बहुत होती थी और हम लोगो को एक खुले हॉल मे सोना होता था तो
ये सब साथ होना निहायत ही ज़रूरी हुआ करता था.... सुबह 4 बजे जगा दिया जाता
था ........... नहाने के लिए ठंडा बर्फ़ीला पानी हुआ करता था ...... जिसमे
हाथ डालने से भी कंपकंपी आ जाती थी लेकिन नहाना जरूरी था .......... तो एक
दम से बाल्टी सिर पर उढेल लेते थे .......... हाहाहा आज भी उसे याद कर
ठंडी की सिहरन रीड मे दौड़ गयी ......... लगभग पूरा भारत विशेषकर राजस्थान,
उत्तरप्रदेश, वर्तमान उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश आदि उसी उम्र
मे घूम लिया था ...... हाँ और इस यात्रा पर मात्र 100 रुपए खर्च होते थे
जिसमे खाना-पीना घूमना सब शामिल था ...........साथ मे 50 रुपए जेब खर्च
मिलता था जो मैं घर के लिए कुछ सजावटी समान लाने मे खर्च कर देता था.....
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फिर
8 वीं क्लास मे गर्मियों की छुट्टियाँ हुई ...... मैं अपने माता - पिता के
साथ हरिद्वार, ऋषिकेश घूमने गया ........ वहाँ एक धर्मशाला जो परम पूज्य
माता देवी अहिल्या जी द्वारा हरिद्वार के कुशाघाट पर बनवाई थी........
वहाँ एक परिचित मैनेजर थे जिनका घर उसी धर्मशाला का एक हिस्सा था उनके घर
मे ही रुके थे ...... तभी उनके कुछ परिचित जो ग्वालियर से ही थे .... चारो
धाम की यात्रा के लिए वहाँ आए ......... मेरे माता - पिता भी उनसे ग्वालियर
से ही परिचित थे .... उन्होने आग्रह किया कि साथ ही चलते है ...........
तो इस तरह उस उम्र मे पहली बार हिमालय के उच्च स्थानो को देखने का एक मौका
मिला ........ यमुनोत्री के लिए उस समय हनुमान चट्टी से ही पैदल पथ था जो
लगभग 13 किमी का था ........ हनुमान चट्टी पर मात्र गिने चुने रुकने के
स्थान थे जो दिन मे खाने के होटल बन जाते थे और रात मे रुकने के ..... यही
हाल उत्तरकाशी का था ......बहुत कम आवादी...... वहाँ से हम लोग गंगोत्री गए
........... बहुत ही सुरम्य कोई ज्यादा आवादी नहीं खाली ....... भागीरथी
अपने उच्छन्न रूप मे बहती हुई ......वहाँ एक दांडी स्वामी जी का आश्रम था
जहां हम लोग रुके .....खाने मे गरमागरम खिचड़ी थी अद्भुत आनंद आ गया
........... स्वामी जी से भी मुलाक़ात हुई उनका आशीर्वाद पाने का सौभाग्य
मिला ....... इसके बाद बाबा केदारनाथ ......... अद्भुत, अलौकिक अत्यंत ही
सुंदर इस स्थान पर बाबा केदारनाथ विराजे हुए ......... दूर तक कोई अवादी
नहीं ......... मन्दाकिनी कि हाहाकारी आवाज़ रात के उस वीराने को चीर रही
थी उस माहौल को कुछ रहस्यमय और भयावह बना रही थी .... बाबा के दर्शन के
लिए कोई लंबी लाइन नहीं, ना ही पंडो कि वो खीचतान सब कुछ बहुत खुशनुमा
बेहद सुखद .......... मैं वहाँ पंडो के बच्चो के संग खेल रहा था उसी कौतूहल
मे मैंने उनसे पूछा कि ये नदी कहाँ से आती है ???? ...... उन्होने उंगली
एक दिशा कि तरफ उठाई और कुछ नाम लिया , याद नहीं क्या बताया ....... मैंने
पूछा क्या हम जा सकते है ???? उन्होने कहा बहुत बर्फ होती है ........ फिर
उस दिशा मे देखते हुए मन से आह निकली और सोचा , किसी दिन अवश्य देखुंगा
........... इसी तरह बद्रीनाथ पहुंचे वहाँ दूर बस स्टैंड से गर्व से आसमां
मे सर उठाए बद्रीनाथ भगवान का सुंदर सा मंदिर दिखाई दिया ............ एक
पुल को जो अलकनंदा पर था को पार कर मंदिर के पीछे स्तिथ एक घर मे रुके
........ उस समय रुकने के स्थान बहुत सीमित थे ......... कोई गंदगी नहीं ,
हर तरफ प्रकृति कि अनोखी छटा बिखरी हुई थी .......... फिर वहाँ भी मैंने
कुछ दोस्त बना लिए और हम बच्चो कि टोली चल पढ़ी घूमने ...... छोटे छोटे 5-6
बच्चे 7-8 क्लास के माना कि तरफ चल दिये ....... दूर तक कोई घर नहीं इक्का
-दुक्का आदमी रास्ते मे मिल जाते....... फिर एक स्थान पर रुक कर उन्होने
बताया ये व्यास गुफा है यही पर महाभारत लिखी गयी थी........ एक सुंदर सी
गुफा थी जिसे प्रकृति ने एक किताब कि शक्ल दे दी थी हम लोग अंदर गए इधर
उधर घूमा ......... फिर चल पड़े आगे गणेश गुफा कि तरफ सुंदर सी छोटी सी गुफा
थी हम लोग अंदर गए ........... वहाँ तीर्थयात्रियों ने कुछ पैसे चढ़ाये हुए
थे वो बच्चे उन पैसो को उठा रहे थे तो मैंने भी एक रुपए का सिक्का उठा
लिया .......... हाहाहा ..... बहरहाल आगे माणा गाँव पहुंचे ......... वहाँ
तब भी वो चाय कि छोटी सी दुकान थी वहाँ हमने उन पैसो से खाने पीने की चीजे
खरीदी फिर उन्होने मुझे भीम पुल पर चड़ा दिया ........ मैं चड़ तो आसानी से
गया ....... लेकिन उतरना नहीं आता था ........ रोने जैसी स्तिथी हो गयी अब
क्या करे ......... नीचे एक झरना बहुत वेग से बह रहा था अतः कूदना संभव
नहीं था .... वो लोग उस चाय वाले को पकड़ लाये फिर उसने मुझे उतरने का तरीका
बताया ....... डरते -डरते नीचे उतरा ......... सर्दी मे भी पसीने से नहा
गया ............. फिर टोली चली वसुधारा कि तरफ जहां से अलकनंदा निकलती है
.......... थोड़ी देर वही विश्राम किया ........... फिर एक लंबे से झूलने
वाले पुल से होकर नदी के दूसरी तरफ आए ....... जब हवा चलती तो वो पुल बहुत
तेज़ी से हिलता था ......... मुझे शुरू मे डर लगा लेकिन फिर उन लोगो को देख
कर डर निकाल दिया ......... वापस बद्रीनाथ पहुंचे ......... जहां अब तक हम
लोगो कि जबरदस्त ढूंढाई शुरू हो चुकी थी ............ बहरहाल थोड़ी बहुत
डांट फटकार से भी उस यात्रा का मज़ा कम नहीं हुआ ............ हाँ मैं साहसी
शुरू से ही हूँ .............. गरम पानी के कुंड मे सब लोग धीरे - धीरे
टटोलते हुए उतर रहे थे मैं सीधा दौड़ के जंप मार दिया ......... पिताजी से
हल्की डांट के साथ सीख मिली कि बिना गहराई जाने सीधे नहीं कूदना चाहिए
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इस प्रकार महान हिमालय से मेरा पहला सुखद सामना हुआ और
मुझे प्यार हो गया ...... और इस तरह शुरू हुआ एक सिलसिला आज भी अनवरत जारी
है......... हिमालय से मुझे बचपन से ही विशेष लगाव रहा है ये मुझे अपनी तरफ
खींचता है........ जब भी समय मिलता है इसकी गोद मे चला जाता हूँ......
उस समय platonic कैमरा था जिसमे 1-10 कि रील होती थी ......... फोटो कहीं खो गए मिलते ही रीपोस्ट करूँगा...........